Sunday, 31 March 2019

दहेज प्रथा पर एक कविता

जबसे पैदा होती है बेटी, तो एक ही बात होती है जमाने में;
एक बाप लग जाता है तब से दिन रात कमाने में।
कि जैसे भी हो पर दहेज तो कैसे न कैसे जुटाना है;
और अपनी प्यारी बिटिया को उस दहेज से विदा कराना है।
तब बड़ा मुश्किल हो जाता है खुद को संभालना;
और दहेज के असहनीय दर्द से खुद को निकालना।
जब लड़के का बाप कहता है लड़की के बाप से;
कि कुछ शादी के बारे में बातें हो जायें आप से ।
तो लड़की के बाप का दिल बैठ जाता है;
और अचानक से गला सूख जाता है।
धड़कने तब एकाएक तेज चलने लगती है;
और दिल में केवल एक ही बात उठती है।
कि लड़के का बाप अब दहेज की बात करेगा;
न जाने कितनी रकम की माँग करेगा।
न जाने मैं इतनी रकम जुटा पाऊंगा या नहीं;
न जाने कितना कुछ गिरवी रखना पड़ेगा कहीं।
और न जाने कितने ही दिल बैचेन करने वाले;
सवाल घनघोर मन में तब लगते हैं मंडराने।
वो वक्त न जाने कितना कहर ढहाता है;
बस जान न निकले बाकी सब हो जाता है।
एक डरावने सपने से डरावना होता है वो पल;
एक लड़की का बाप सोचे कैसे जाए ये टल।
आँखें चौंधिया देने वाला उजाला भी अंधेरा सा जान पड़ता है;
और बेटी की शादी का सपना किसी डरावने सपने सा लगता है।

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Storie Published @ 2014 by Ipietoon